पिछले कुछ दिनों से मेरे बैकपैक की चेन टूटी हुई है। बनाने का समय नहीं मिल रहा। रोज़ दोपहर में घर से निकलने से लेकर रात में घर पहुँचने तक दो-तीन नितांत अजनबियों की आवाज़ सुनाई ही पड़ जाती है, "अंकल/भाईसाहब, आपके बैग की चेन खुली हुई है।" अच्छा लगता है। लगता है, लोगों को मेरी परवाह है। अभी समाज में पूरी तरह 'अदृश्य' नहीं हो गया। ऐसा ही अनुभव तब भी होता है जब, जूतों के तस्मे न बाँधने की अपनी बड़ी बुरी और पुरानी आदत के कारण कोई अनजान लड़की, कोई बूढा या कोई नौजवान मुझे टोकता है। "जूते के लेस बाँध लो, गिर जाओगे।" अपनी बात न करूँ तो, चंडीगढ़ में भी जहाँ मैं फिलहाल हूँ और मुंबई में भी जहाँ मैंने अपना तमाम जीवन बिताया है, कई बार देखा है, लोगों को किसी नेत्रहीन को रास्ता पार कराते हुए। मुंबई में चर्चगेट के पास व्यस्त सिग्नल पर अचानक वाहनों के लिए सिग्नल हरा हो जाने के बाद एक रिरियाते अपंग को रास्ता पार कराने के लिए पांच-छह लोगों को मानव श्रृंखला बनाकर ट्रैफिक रोकने और दो लोगों के उस अपंग को रास्ता पार कराने का दृश्य भी मैंने देखा है। आप कहेंगे मैं कहना क्या चाहता हूँ? य...