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Showing posts from 2017

अच्छे लोग बहुत हैं, पर फिर भी कम हैं!

पिछले कुछ दिनों से मेरे बैकपैक की चेन टूटी हुई है। बनाने का समय नहीं मिल रहा। रोज़ दोपहर में घर से निकलने से लेकर रात में घर पहुँचने तक दो-तीन नितांत अजनबियों की आवाज़ सुनाई ही पड़ जाती है, "अंकल/भाईसाहब, आपके बैग की चेन खुली हुई है।" अच्छा लगता है। लगता है, लोगों को मेरी परवाह है। अभी समाज में पूरी तरह 'अदृश्य' नहीं हो गया। ऐसा ही अनुभव तब भी होता है जब, जूतों के तस्मे न बाँधने की अपनी बड़ी बुरी और पुरानी आदत के कारण कोई अनजान लड़की, कोई बूढा या कोई नौजवान मुझे टोकता है। "जूते के लेस बाँध लो, गिर जाओगे।" अपनी बात न करूँ तो, चंडीगढ़ में भी जहाँ मैं फिलहाल हूँ और मुंबई में भी जहाँ मैंने अपना तमाम जीवन बिताया है, कई बार देखा है, लोगों को किसी नेत्रहीन को रास्ता पार कराते हुए। मुंबई में चर्चगेट के पास व्यस्त सिग्नल पर अचानक वाहनों के लिए सिग्नल हरा हो जाने के बाद एक रिरियाते अपंग को रास्ता पार कराने के लिए पांच-छह लोगों को मानव श्रृंखला बनाकर ट्रैफिक रोकने और दो लोगों के उस अपंग को रास्ता पार कराने का दृश्य भी मैंने देखा है। आप कहेंगे मैं कहना क्या चाहता हूँ? य...

गुजरात चुनाव: बीजेपी की जीत में छिपी है नैतिक हार!

गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं और सतही तौर पर देखने पर यही दिख रहा है, जो कथित मुख्यधारा के मीडिया में उछाला जा रहा है कि चूंकि बीजेपी अपने बूते सरकार बनाने जा रही है यानी वह जीत गयी है। क्या सचमुच? विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि इस जीत में बीजेपी की बड़ी नैतिक हार छिपी हुई है। यकीन नहीं आ रहा तो इन तथ्यों पर गौर करें। गुजरात में 22 सालों से बीजेपी का शासन है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह प्रदेश है, गुजरात। वास्तव में गुजरात के कथित विकास मॉडल को प्रचारित कर ही बीजेपी ने 2014 में देश में सत्ता हासिल की थी। गुजरात हिंदुत्व की पहली प्रयोगशाला थी। बाबरी मस्जिद विध्वंस की बुनियाद बनाने के लिए तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा गुजरात के सोमनाथ से शुरू की थी। छह फरवरी 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद गुजरात में भी दंगे हुए थे। उन दंगों के बाद जैसा कि कई राज्यों में हुए चुनावों में हुआ, गुजरात में भी 1995 में बीजेपी सत्ता में आई। 2001 में आंतरिक संकट से जूझ रही पार्टी ने उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचारक श्री मोदी को गुजरात में मुख्यमंत्री बनाया।...

ब्रेकिंग न्यूज़ : 'पद्मावती' पर पर्यावरण विभाग ने रोक लगाईं! कहा, "बहुत ध्वनि प्रदूषण फैला रही है!"

पर्यावरण विभाग ने फिल्म 'पद्मावती' पर रोक लगा दी है! विभाग का कहना है कि फिल्म बहुत नॉइज़ पोल्यूशन यानी ध्वनि प्रदूषण फैला रही है ।  विभाग के एक उच्चाधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि इस ज्वलंत मुद्दे पर एक आपात बैठक बुलाई गयी थी जिसमें मंत्री का प्रतिनिधित्व उनके निजी सहायक ने किया। इस बैठक में सर्वसम्मति से फिल्म को बैन करने का फैसला लिया गया। फैसले के अनुसार फिल्म को सिर्फ भारत में ही नहीं 'प्लेनेट अर्थ' पर बैन किया गया है क्योंकि ध्वनि प्रदूषण की समस्या सिर्फ भारत में तो है नहीं। बैठक के मिनट्स (जिसकी कॉपी इस संवाददाता के पास है) के हवाले से ख़ास अपने पाठकों के लिए हम यह सुपर एक्सक्लूसिव   रिपोर्ट आपके सामने पेश कर रहे हैं: बैठक की शुरुआत गगनभेदी 'वन्दे मातरम' और समापन 'भारत माता की जय' के नारों से हुई। बैठक का एजेंडा रखते हुए एक उच्चाधिकारी ने कहा कि ऊपर से आदेश है कि कुछ करना होगा, हम कुछ नहीं कर रहे, इसलिए कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों को क़ानून और व्यवस्था बिगड़ने की आशंका का हवाला देकर फिल्म को बैन करना पड़ रहा है, इसमें यह संके...

#मैंकरसकतीहै...!

आम तौर पर मुझे जो फिल्म देखनी होती है, उसकी समीक्षा नहीं पढ़ता और कल सुबह भी अखबारों में या नेट पर 'तुम्हारी सुल्लू' की समीक्षा नहीं पढ़ी । वास्तव में खुद को बड़ी मुश्किल से रोका। फिल्म देखने के बाद सोचा अच्छा किया। मुंबई के सुदूर उपनगर विरार में रहने वाली सुलोचना उर्फ सुल्लू से बिना उसके बारे में जाने मिलना सुखद अनुभव रहा। एक निम्न-मध्यम वर्गीय शादीशुदा औरत, एक बच्चे की मां जो कुछ करना चाहती है, क्या? उसे पता नहीं, पर कुछ तो करना चाहती है जो सिर्फ पति, बच्चे और घर सँभालने से परे उसके अपने अस्तित्व को तलाशने में मदद करेगा। उसे लगता भी है कि वह कर भी सकती है। बल्कि उसे पूरा-पूरा विश्वास है कि वह कर सकती है और वह कहती भी है, "मैं कर सकती है!" मोहल्ले में मुंह से पकड़े चम्मच में नीम्बू रखकर चलने की प्रतियोगिताएँ जीतने वाली सुल्लू एक रेडियो स्टेशन का एक कांटेस्ट जीतती है और वहां रेडियो जॉकी के लिए इंटरव्यू का पोस्टर देखकर रेडियो स्टेशन वालों के पीछे पड़ जाती है कि उसे एक चांस दिया जाए। वहां भी उसका सूत्र वाक्य यही है, 'मैं कर सकती है।' आखिर उसे वह काम मिल भी जा...

राष्ट्रवाद के समय में लेखकों की भूमिका

एम. हामिद अंसारी लेखक चूंकि लोगों के नज़रिए को प्रभावित करते हैं और उनके विचारों को आकार देने में मदद करते हैं, इसलिए लेखकों की एक सामाजिक जिम्मेदारी है. पाठक वर्ग उनके लेखन से ही उनके सामाजिक उद्देश्य, विवेक की गहराई और भावनात्मक ईमानदारी को परखता है. इसीलिए उनका कार्य समकालीन सांस्कृतिक आचार-विचार और राष्ट्रीय पहचान को प्रतिबिम्बित करता है और करना चाहिए. इस तरह यह महत्वपूर्ण सवाल हमारे समक्ष आता है: भारतीय राष्ट्रीय पहचान क्या है? इस सवाल का जवाब देने के दो तरीके हो सकते हैं: पहला  निगमनात्मक होगा, तथ्यों अथवा अनुभव से स्वतंत्र: दूसरा विवेचनात्मक होगा, तथ्यों और अनुभव पर आधारित. पहला स्वीकृत परंपरा की अचूकता, समानता, एकरूपता, अखंडता की वकालत करता है. दूसरा ज़मीनी सच्चाई पर आधारित विभिन्नता, विविधता, जटिलता को पहचानता है. यह स्वयंसिद्ध सत्य है कि सभी नज़रियों को प्रत्यक्ष तथ्यों की कसौटी पर परखना होता है. तो भारत के सामाजिक परिदृश्य की असल हकीकत क्या है? भारतीय मानवविज्ञान सर्वेक्षण संकेत देता है कि हमारी धरती पर शारीरिक बनावट, वेशभूषा, भाषा, पूजा के तरीकों, पेशे, खान...

सरकार जीएसटी के मामले में पीछे हटी, नोटबैन से क्यों नहीं?

नोटबैन जीएसटी से ज्यादा घातक था, लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार नोटबैन पर अड़ी रही बल्कि आज भी इसे सफल करार दे रही है और आगामी 8 नवंबर को ‘काला धन विरोधी दिवस‘ के रूप में मनाना चाहती है लेकिन वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) पर सरकार ने अपने कदम पीछे हटाये और न सिर्फ कुछ दरों में बल्कि प्रक्रियागत बदलाव भी किये तथा और भी सुधारों की बात मान रही है, क्यों? एक विश्लेषण:- नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले एक साल में दो ऐतिहासिक आर्थिक ‘नीतियों‘ की घोषणा की - नोटबैन और जीएसटी। दोनों में कई पहलू समान थे तो कुछ एकदम विपरीत भी। पहले समान पहलुआें की बात की जाए।  दोनों देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो चुकी हैं। कम से कम इनके अमल में अाने के बाद तुरंत जो दुष्प्रभाव सामने आए उन्हें देखकर ऐसा कहा ही जा सकता है, दीर्घावधि में क्या होगा, कहा नहीं जा सकता, सरकार चाहे जो दावे करे।  अचानक किये गये नोटबैन से 200 से ज्यादा जानें गईं, लाखों लोग रातोंरात बेरोजगार हुए, कई लघु व्यवसाय समाप्त हो गये। नोटबैन से सबसे ज्यादा प्रभावित सबसे गरीब और कमजोर तबका (दिहाड़ी मजदूर, असंगठित क्षेत्रों के कर्मचारी, छो...

नोटबैन अगेन...!

पिछले साल की पोस्ट-दीवाली रिलीज़ ब्लॉकबस्टर फिल्म 'नोटबैन' के निर्माताओं को इसकी सफलता भुनाने के लिए सीक्वल बनाने की सूझी सो उन्होंने फिल्म से जुड़े विभिन्न महत्वपूर्ण लोगों की एक बैठक बुलाई । बैठक में मीडिया को प्रवेश नहीं दिया गया पर आपका खादिम किसी तरह बैठक की खबर निकाल लाया । पेश है एक्सक्लूसिव रिपोर्ट: बैठक की शुरुआत निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक और नायक, जिसे सब प्रधानजी कहकर पुकारते हैं, ने की और कहा, "मैं बिना भूमिका बांधे आप लोगों से पूछना चाहूँगा कि सीक्वल का नाम क्या रखा जाए? तुरंत कई प्रस्ताव आये जिनमें 'नोटबैन दोबारा', 'नोटबैन रिटर्न्स', 'फिर से नोटबैन' और 'नोटबैन अगेन' शामिल थे ।  प्रधानजी को 'नोटबैन अगेन' पसंद आया और नाम तय कर लिया गया। फिर उन्होंने दूसरा सवाल दागा, 'फिल्म में कंटेंट क्या होगा?' प्रधानजी के साथ हमेशा चाय के साथ केतली की तरह रहने वाले एसोसिएट डायरेक्टर यानी सह-निर्देशक ने कहा, "सर, पहला पार्ट सुपर-डुपर हिट होने के कारण लोगों की अपेक्षाएं बढ़ गयी हैं इसलिए इस बार और बड़ा धमाका...

Premchand’s Torn Shoes

By Harishankar Parsai There is a photograph of Premchand in front of me, he has posed with his wife. Atop his head sits a cap made of some coarse cloth. He is clad in a kurta and dhoti. His temples are sunken, his cheek-bones jut out, but his lush moustache lends a full look to his face. He is wearing canvas shoes and its laces are tied haphazardly. When used carelessly, the metal lace-ends come off and it   becomes difficult to insert the laces in the lace-holes. Then, laces are tied any which way. The right shoe is okay but there is a large hole in the left shoe, out of which a toe has emerged. My sight is transfixed on this shoe. If this is his attire while posing for a photograph, how must he be dressing otherwise? I wonder. No, this is not a man who has a range of clothes, he does not possess the knack of changing clothes. The image in the photograph depicts how he really is. I look towards his face. Are you aware, my literary forbear, that you...

जहाँ हदिया कैद है...

(फोटो साभार : न्यूज़लांड्री)  शीर्षक पढ़कर आपके मन में कई सवाल उठ सकते हैं। सवाल मेरे मन में भी उठे थे हदिया के बारे में एक खबर पढ़कर। कई सारे सवाल ।  पर कुछ सवालों के जवाब मुझे मिले हैं, कुछ सवालों के जवाब नहीं मिले। जो भी है शेयर करना चाहूँगा। पहला सवाल जो शीर्षक से ही उठ रहा है, हदिया कहाँ कैद है? हदिया भारत में, हमारे देश में कैद है। आप कहेंगे तो क्या वह किसी और देश की है? नहीं, यह उसका भी देश है यानी वह अपने देश में ही कैद है। भारत में कहाँ? केरल में। केरल में कहाँ क्या वह किसी जेल में कैद है और क्या उसने कोई गुनाह किया है? गुनाह तो उसने किया है या नहीं यह तय होना बाकी है पर वह जेल में कैद नहीं है। वह अपने माता-पिता के घर में कैद है। क्या वह छोटी से बच्ची है या नाबालिग है? नहीं, उसकी उम्र 26 साल से कुछ ज्यादा ही है। वह बालिग़ है और होमियोपैथी की डॉक्टर है यानी वह पढ़ी लिखी भी है। फिर उसे क्यों कैद करके रखा गया है? क्या वह बीमार है? नहीं! क्या उसकी जान को खतरा है इसलिए उसे कैद करके रखा गया है? नहीं। वह कब से कैद है? जी, चार महीने से ज्यादा हो गए, वह कैद है। उसे ...

रोहिंग्या शरणार्थी ही क्यों स्वीकार्य नहीं?

रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर भारत सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामे में कह दिया है कि वह इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानती है और इसलिए इन्हे डिपोर्ट करना चाहती है। इतना ही नहीं सरकार ने हलफनामे में ढंके छिपे ढंग से अदालत से इस मामले में हस्तक्षेप न करने को कहा है और कहा है कि इसे एग्जीक्यूटिव पर ही छोड़ देना चाहिए। अदालत में अगली सुनवाई ३ अक्टूबर को होने वाली है। सरकार का रुख कई सवाल खड़े करता है। सबसे पहला यह कि आप किसीको भी जानते हुए मौत के मुंह में कैसे धकेल सकते हैं। इस समय बर्मा से बड़े पैमाने पर रोहिंग्या का पलायन हो रहा है और पलायन का कारण उनका वहां के दमनकारी सैन्य शासन से अपनी जान बचाना है। करीब तीन लाख रोहिंग्या बांग्लादेश में चले गए हैं। इसीसे अंदाजा लगाया जा सकता है की वहां स्थिति कितनी भयावह होगी। अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के अनुसार किसी शरणार्थी को ऐसी परिस्थितियों में उसके देश नहीं भेज सकते जहाँ से वह हिंसा से बचने के लिए भागा हो या जहाँ उनकी जान को खतरा हो। मानवीयता का तकाजा भी यही कहता है। कहने का मतलब यह है कि अगर बर्मा इन रोहिंग्या शर...

अच्छे दिनों की ट्रेन अनिश्चितकालीन देरी से चल रही है! असुविधा के लिए खेद है!

कार्टून साभार : राजेंद्र धोड़पकर,  जैसी-तैसी सत्याग्रह अच्छे दिनों की ट्रेन का इंतज़ार कर रहे सभी भारतीय कृपया ध्यान दें, अच्छे दिनों की ट्रेन अनिश्चितकालीन देरी से चल रही है और 16 मई 2014 को पहुँचने वाली ट्रेन अभी हमें मिली जानकारी के अनुसार 2019 तक तो नहीं पहुँचने वाली। यात्रियों की असुविधा के लिए हमें खेद है! इससे पहले कि आप आक्रोशित हों, हमें अपशब्दों से नवाजें या तोड़फोड़ जैसी देशद्रोही गतिविधियां शुरू करें, हम आपसे अनुरोध करना चाहेंगे कि यह देश आपकी ही संपत्ति (हमें तो केवल इसे मैनेज करने का ठेका मिला हुआ है) है कृपया इसे नुकसान न पहुंचाएं अन्यथा हमें कानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिए आप पर लाठी और गोली चलानी पड़ सकती है। इस वैधानिक चेतावनी के बाद वैसे हमें तो आपको कोई सफाई देने की ज़रुरत नहीं हैं पर फिर भी आपको ट्रेन के लेट होने के कारण बता देते हैं। आप सवा सौ करोड़ भारतीय हो और अच्छे दिनों की ट्रेन एक। अब वैसे भी इसमें सब एक साथ सवार नहीं हो सकते। इसलिए ट्रेन को अभी यार्ड से निकाला ही नहीं गया है। इसमें डिब्बे जोड़े जाने का काम चल रहा है ताकि सभी भारतीय इसमें सवार...

धारावाहिकों ने साहित्य को जन जन तक पहुंचाने का काम किया है

  इस सत्र के अध्यक्ष श्री कुंदन शाह जी , वक्ता श्री विष्णु खरे जी, श्री राम गोविंद जी , श्री अनंद देसाई जी और डाक्टर प्रज्ञा शुक्ल जी । मुझे विषय दिया गया है साहित्य की लोकप्रियता में धारावाहिकों की भूमिका। मैं इस विषय पर अपना नज़रिया पेश करने की कोशिश करूंगा।     मेरा यह  मानना है कि साहित्य की लोकप्रियता में धारावाहिकों की बड़ी भूमिका रही है। धारावाहिकों ने साहित्य को जन जन तक पहुंचाने का काम किया है। ऐसे लोग जिनकी भाषा की समस्या या किताबों की अनुपलब्धता या किसी अन्य कारण से साहित्य तक पहुंच नहीं हो पाती, उन तक साहित्य को पहुंचाने का काम धारावाहिकों ने किया है। श्रेष्ठ साहित्यिक रचनाओं पर बने कुछ धारावाहिकों का जिक्र करते हुए मैं अपनी बात रखना चाहता हूं.   1.भारत एक खोज- पंडित जवाहरलाल नेहरू की किताब .. डिस्कवरी आफ इंडिया पर आधारित ये धारावाहिक जानेमाने निर्देशक श्याम बेनेगल ने बनाया था। वर्ष 1988 में इसका प्रसारण दूरदर्शन पर हुआ था। इसमें नेहरू की भूमिका रोशन सेठ ने निभाई थी । ओम पुरी और टाम अल्टर जैसे नामी कलाकारों ने इसमें अभिनय किया था। भार...